मोहतरमा फिरदौस खान के ब्लॉग पर उनका लेख पढा जिस में उन्होंने ‘रीयत पर गुस्सा उतारते हुए कुछ प्रश्न किये हैं। उनका सवाल है कि ‘रीआ कानून मर्दो पर लागू क्यों नहीं होता, उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वह कहती हैं कि औरतें बुर्के में रहती हैं परन्तु मर्द दाढी क्यों नहीं रखते।

श्रीमती जी, इस्लामी कानून दोनों के लिये बराबर है, जैसे बहुत सी मुस्लिम महिलाएं बुर्का पहनती हैं ऐसै ही बहुत से मुस्लिम मर्द दाढी भी रखते हैं परन्तु बहुत सी महिलाएं पर्दे के कानून का उलन्घन करती हैं ऐसे बहुत से मर्द भी दाढी के बारे में ‘

रीआ का कानून तोडते हैं जैसे आप बुर्का नहीं पहनती और मैं दाढी नहीं रखता न आप पर किसी ने फतवा लगाया न मुझ से किसी ने स्पष्टिकरण मांगा, हाँ यह बात जरूर है कि पर्दे या बुर्के पर दुनिया भर में वाविला अधिक है। उसका कारण यह है कि मीडिया जिस पर इस्लाम मुखालिफों का कन्ट्रोल है वह इस्लाम को बदनाम करने के लिये इस्लामी पर्दे की बात को अधिक उछालता है और मर्द की दाढी के सम्बधं में वह प्रश्न ही नहीं करता, और आप जैसी महिलायें उनके "डयन्त्र का शिकार होकर उनके सुर में सुर मिला कर कह देती है कि ‘रीआ कानून केवल महिलाओं के लिये ही क्यों है, हासिल यह कि यह सवाल बचकाना है।

फिरदौस जी ने अपने लेख में मुजफ्फरनगर की इमराना का वर्णन करते हुए पूछा है कि ‘

रीआ कानून में बलात्कारी ससुर को सजा क्यों नहीं।

यहाँ भी मुझे महोदया के ज्ञान भंडार में वृद्वि करनी होगी कृप्या नोट करें कि बलात्कारी ससुर की सजा मौत है। और जब बलात्कारी को मौत की सजा दे दी गई तो यह प्रश्न स्वतः ही समाप्त हो गया कि क्या अब पीडित महिला को बलात्कारी की पत्नी बनकर रहना होगा,असल बात यह है कि ‘

रीअत के मुताबिक अगर किसी व्यक्ति ने किसी महिला से ‘शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर लिये तो वह उस मर्द की औलाद पर हराम हो जायेगी, और यह मसअला रिश्तों की हुरमत के लिये है कि बाप और बेटे एक ही गंगा में न नहायें, न कि रिश्तों को तोडने के लिये, इमराना जैसे केस में जैसा कि लिखा गया है कि बलात्कारी मृत्यु दण्ड का पात्र है, परन्तु फिर वही मीडिया का रवय्या देखें ! कि उसने बलात्कारी के पुत्र पर पीडित के हराम होने का तो ‘शोर मचाया परन्तु बलात्कारी की सजा क्या है उसका जिक्र तक न किया

मीडिया की नीयत को समझने के लिये यहाँ एक घटना का वर्णन उचित होगा -

तीन नवम्बर 2009 के रोजनामा राष्ट्रीय सहारा के अनुसार राजकोट में इमराना जैसी एक घटना हिन्दू परिवार में घटी, पुलिस रिपोर्ट के अनुसार राजकोट के धर्मेश की पत्नी ने अपने ससुर के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करायी कि उसके ससुर ने उसका जबरदस्ती बलात्कार किया जिसमें उसका पति धर्मेश भी ‘

शामिल था कारण यह था कि धर्मेश अपनी पत्नी से सन्तान उत्पन्न करने में नाकाम रहा, अतः वह भी इस अपराध में ‘शामिल हो गया ताकि सन्तान प्राप्त कर सके, और विरोध करने पर उन दोनों ने उसे जान से मारने की धमकी दी

खास बात यह रही कि इतनी बडी घटना मीडिया वालों में कोई हलचल पैदा न कर सकी, जबकि ऐसी ही घटना जब मुस्लिम परिवार में घट जाये तो तथाकथित महिलाधिकार के हजारों संरक्षक इस्लाम में महिलाधिकार हनन की दुहाई देते नहीं थकते ।

फिरदौस ने एक प्रश्न यह किया है कि क्या ‘

रीआ का कानून ‘शाह बानों को न्याय दिला सका है ?

महोदया ! जब कोई पीला चश्मा आँखों पर चढाये तो उसे हर वस्तु पीली ही नज़र आती है । ‘

शाहबानों जैसे मामलों में अगर पत्नी को तलाक हो जाय (इसको तो जाने दीजिए कि तलाक किन परिस्थतियों में होती है ‘शायद आपको इस पर भी एतराज हो, इसके लिये आप सूरह निसा और सुरह बकर की तलाक सम्बन्धि आयते देखें कि कुरआन से बडा मुफ्ती कोई नही होता वहाँ आपको लिखा हुआ मिलेगा कि तलाक ऐसी स्थिति में होगी जब दोनों के दरमियान ये डर पैदा हो जाए कि अब वे अल्लाह की हदूद को कायम नहीं रख पायेंगे )

बहरहाल तलाक के बाद अलहैदगी हो जाने के बाद ‘

रीआ चाहती है कि वह दोनों जो उपरोक्त परिस्थति उत्पन्न होने पर अलग हुए है जहाँ यह डर पैदा हो गया था कि ये अल्लाह की हदों को कायम नहीं रख पायेंगे, अतः इनमें अलहैदगी ही उचित है, से में अगर अदालत उस महिला का खर्च पहले पति पर डालती है तो यह आपने कैसे मान लिया कि जो आप से इस हद तक नफरत करता है कि अल्लाह की हदे ही टूटने का डर हो गया था, वह दायें हाथ से हर महीने खर्च की रकम को अमानत मानकर विधवा महोदया की सेवा में प्रस्तुत कर दिया करेगा, फिर रोज रोज उसे उदालतों के चक्कर लगाने होंगे, और अदालत केवल फैसला करेगी कोई पुलिस कपतान को आपकी सेवा में नौकर बना कर नहीं छोडेगी जो प्रतिमाह पूर्व पति से खर्च की रकम लेकर विधवा जी की सेवा में प्रस्तुत कर दिया करेगा ।

दूसरी बात यह है कि आप विधवा पत्नी को इतना अप

मानित क्यों देखना चाहते हैं कि जो पती आपको साथ रखने पर तैयार नहीं आप उसकी खैरात पर क्यों जिन्दा रहना चाहती हैं, अब प्रश्न यह आता है कि विधवा की गुजर अवकात कैसे होगी तो मैं आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि ‘रीआ ने बाप की जायदाद में महिला को पुरूष की भांति ही हिस्सेदार बनाया है। बाप की विरासत में मिला हुआ धन उस के लिये खैरात नहीं उसका मूल अधिकार है ।

अफसोस है कि जो शरीआ आप को मान सम्मान की धन दौलत का मालिक बनाना चाहती है । आप के नज़दीक उसकी अपेक्षा खैरात के टुकडे वह भी उस व्यक्ति के जो आप के साथ नहीं रहना चाहता अधिक पसन्द है। दूसरी मिलकियत जिसका ‘

रीआ ने महिला को मालिक बनाया है वह उसका महर है। किसने कहा कि आप दो सौ चार सौ रूपये की रकम के मेहर बांधे ? सऊदिया अरेबिया में एक लाख रियाल अर्थात 14 लाख हिन्दुस्तानी रूपये से कम के मेहर बांधने का रिवाज़ नहीं, यह रकम पूर्णतः महिला की होती है जिसकी व जब चाहे पति से प्राप्त कर सकती है ।

असल यह है कि हम जीवन भर हिन्दुवानी रस्म व रिवाज को फॉलो करते हैं और जब कोई पेरशानी खडी होती है तो ‘

रीआ को दो देते हैं ।

लेख का आरम्भ हमने पर्दे से किया था आइये इस पर भी थोडी चर्चा करें । आज कल दुनिया भर में बुर्के का बडा ‘

शोर है अतः हमें यह समझना चाहिए कि वर्तमान का परम्परागत बुर्का ‘रीआ का हिस्सा नही हैं (हाँ इसे आप मुस्लिम कलचर का हिस्सा जरूर कह सकते हैं ) आप बुर्का पहने या कोई चादर या कुछ और, मकसद पर्दा है, पर्दा उन अंगों का जो आकर्षण का केन्द्र हैं । पर्दे का मतलब यह नहीं कि आप स्वयं को किसी डब्बे या सन्दूक में बन्द करलें या घर को अपने लिये कैदखाना बनाकर उसमें कैद हो कर रह जाए, पुरूष हो या महिला दोनों को इस सम्बन्ध में ‘रीआ कुछ न कुछ करने को कहती है ताकि समाज मे गंदगी न फैले, उसकी हद क्या है? उसे कुरआन की इन आयतों में देखें -

ईमान वाले पुरूषों से कह दो कि अपनी निगाहें बचाकर रखें और अपने गुप्तांगों को रक्षा करें । यही उनके लिए अधिक अच्छी बात है अल्लाह को उसकी पूरी खबर रहती है, जो कुछ वे किया करते हैं।

और इमानवाली स्त्रियों से कह दो वे भी अपनी निगाहें बचाकर रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें । और अपने श्रृंगार प्रकट न करें, सिवाय उसके जो उनमें खुला रहता है। और अपने सीनों (वक्षस्थल) पर अपने दुपट्टे डाले रहें और अपना श्रृंगार किसी पर जाहिर न करें सिवाय अपने पतियों के या अपने बापों के या अपने पतियों के बापों के या अपने बेटों के या अपने पतियों के बेटों के या अपने भाईयों के या अपने भतीजों के या अपने भांजों के या अपने मेल-जोल की स्त्रियों के या जो उनकी अपनी मिल्कियत में हों उनके या उन अधीनस्थ पुरूषों के जो उस अवस्था को पार कर चुके हैं जिससे स्त्री की जरूरत होती है या उन बच्चों के जो स्त्रियों के परदे की बातों से परिचित न हों । और स्त्रियां अपने पाँव धरती पर मारकर न चलें कि अपना जो श्रृंगार छिपा रखा हो, वह मालूम हो जाए । ऐ इमानवालो! तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो, ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो । (कुरआन 24

: 30-31)

महोदया ! बुर्का इन आयतों के अन्दर की ही चीज है इनके अलावा कुछ नहीं ।

शायद आपको लगा हो कि महिला पर कुछ ज्यादती कर दी गई। परन्तु थोडा गहरायी में जाकर सोचें ।

वास्तव में बात यह है कि कुदरत ने एक विशेष उद्देश्य से महिला के भीतर यह जज़्बा वदीयत किया है कि वह इन्तहाई हसीन दिखना चाहती है स्वयं ईश्वर ने उसके ‘

रीर में मर्द के लिये ग़ज़ब का आकर्षण रखा है। जैसा कि लिखा गया है कि इसका एक ज्ञात उद्देश्य है अतः पत्नी को अनुमति दी गई है कि वह पति के सामने बन संवर कर रह सकती है वे अपने महरम रिश्तेदारों, बाप, भाई, आदि के सामने भी जीनत अख्तियार कर सकती है कि कुदरत ने उनके बीच पाक़िजा़ प्यार रखा है परन्तु अजनबी मर्दों के लिए एैसा नहीं है अतः उनके अजनबी लोगों के हक़ में कहा गया है कि वे अपने आकर्षण वाले अंगो को छुपा लें, ताकि अजनबी मर्दों के जज़्बात न भडकें और कोई अनहोनी न हो जाए, क्योंकि ‘रीआ में हर बहिन व बेटी की इज्जत बहुमूल्य है वह नहीं चाहती कि किसी बहिन या बेटी पर कोई बुरी नज़र डाले, या किसी बहिन, बेटी की इज्ज़त लूटे ।

आईये अब हम यह देखें कि जहाँ कुरआन के उक्त फरमान को तोडा जाता है वहाँ क्या स्थिति है जैसा कि लिखा गया है कि हर लडकी स्वयं को हसीन और दिल नवाज़ बनाकर पेश करना चाहती है यही कारण है कि हम अधिकतर ‘ाहरों में देखते हैं कि आज की नौजवान युवतियां कम से कम कपडा ‘

रीर पर रखना चाहती हैं, वह भी इतना चुस्त कि ‘रीर का एक एक अंग यहां तक कि गुप्तांग भी अलग-अलग दिखाई दें, किसी भी दोशीजा़ की लहलहाती जुल्फें और चुस्त वस्त्रों में सीने का सुडौल उभार और उस पर निसवानी अदायें क्या क्यामत ढाती हैं यह किसी नवयुवक के दिल से पूछिये फिर क्या होता है? वह यह कि आवारा नौजवान मौके की ताक में रहते हैं, और मौका मिलते ही कांड कर देते हैं। याद रहे कि सख्त से सख्त कानून भी इन घटनाओं को नहीं रोक सकता, क्योंकि कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनका अपने जज़बात पर पूर्ण कन्ट्रोल नहीं होता नतीजा यह कि आये दिन अखबारों में हम नव युवतियों के साथ बलात्कार की घटनाएं पढते ही रहते हैं ।

इस्लाम महिला को सम्मान देता है इसी कारण वह चाहता है कि किसी की इज्ज़त न लूटे अतः वह महिला को अपनी सुरक्षा के उपाय के तौर उसे वह आदेश देता है जो कुरआन में है।

कुछ मुस्लिम मुखालिफ ताकते मुस्लिम लडकियों को यह कह कर वर्गलाने का प्रयास करती हैं कि इस्लाम महिला को पुरूष के बराबर का दर्जा नहीं देता है। मेरा मानना है कि जो समाज यह दावा करता है कि उन के यहाँ पुरूष महिला समान हैं वे जमीनी सच्चाई के खिलाफ दावा पेश करते हैं क्योंकि जिस अर्थ में यह लोग महिला पुरूष की समानता की बात कर रहे हैं उस अर्थ

में समानता सम्भव नहीं।

क्योंकि स्वयं प्रकृति ने दोनों को विभिन्न उद्देश्य से भिन्न भिन्न पैदा किया, और जिसे कुदरत ने ही समान उत्पन्न न किया हो मनुष्य की क्या मजाल जो उसे समान कर दे । ‘

रीर की बनावट दिल, दिमाग यहॉं तक की खून और हेमोग्लोबिन की स्थिति दोनों में अलग-अलग होती है, ऐसे में ‘रीआ कानून पर चढ दौड़ने वाले क्या कुदरत को डंडा लेकर मारना चाहेंगे कि उसने पुरूष के मुकाबले महिला के ‘रीर को फूल सा कोमल क्यों बनाया या उस के सीने पर दिलकश उभार देकर उनमें दूध क्यों पैदा कर दिया, या उसे ही बच्चा जन्ने की जिम्मेदारी क्यों दी या उसे हर माह मंथली कोर्स का अतिरिक्त बोझ क्यों दिया। वास्तव में हमें यह भी जानना और समझना चाहिए कि इस सृष्टी को बनाने और चलाने वाली कोई प्रभू सत्ता है और मानव उस की सृष्टी का एक महत्वपूर्ण अंग है जिसके दोनों पार्ट (पुरूष :महिला) को सृष्टी रचियता ने एक विशेष उद्देश्य से भिन्न-भिन्न पैदा किया है और इस जो राज़ को न समझे वह स्वयं का ही नुकसान करेगा । ऐसे ही जैसे पहाड़ से सर को टकराने वाला पहाड़ का तो कुछ नहीं बिगाड पाता । परन्तु अपना सर अवश्य फोड लेता है । ऐसे ही प्रकृति से टकराने वाला उस का तो कुछ नहीं बिगाड पाता, ठीक इसी प्रकार पुरूष की बराबरी के धोके में आज की महिला स्वयं का ‘'शोषन करा रही है।

यहां यह पुष्टि भी ज़रूरी मालूम होती है कि वर्तमान के तथाकथित आधुनिक मानव समाज ने जिन बिन्दुओं पर इस्लाम से अलग लीक बनाने की कोशिश की है वह कभी उस लीक को पटरी पर लाने में कामयाब नहीं रहा, अपितु ऐसे मामलों में उसे मुँह की खानी पड़ी है। उदाहरण के तौर पर स्त्री पुरूष की समानता की बात को लें, यूं तो इस्लाम ने भी एक दूसरे की तुलना में दोनों को समान अधिकार देते हुए कहा है कि-

महिलाओं के भी पुरूषों पर ऐसे ही अधिकार है जैसे पुरूषों के हैं

(कुरआन सूरह बकर आयत 228)

परन्तु यह वज़ाहत भी की है कि उत्प

त्ति के उद्देश्य एवं शरीर की बनावट के अलग-अलग होने के कारण पुरूष स्त्री से ताकत में एक दर्जा ऊपर है, अतः कुछ विशेष मामलों में दोनों की जिम्मेदारियां अलग-अलग हैं मसलन काम, कारोबार, पढ़ाई-लिखाई, व्यापार, खेल, और उचित मनोंरंजन आदि अर्थात जिन्दगी के हर क्षेत्र में तो दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं परन्तु स्त्री के शरीर को कुदरत ने एक विशेष उद्देश्य के कारण पुरूष के लिए आकर्षणीय बनाया है, अतः उसे इस बात का पाबन्द भी किया है कि वह घर से निकले तो अपने आकर्षण वाले अंगों को छुपा ले।

बस यही बात वर्तमान के तथाकथित आधुनिक समाज को पसन्द नहीं आई और उस ने इस्लाम के द्वारा निर्धारित सीमा को लांग कर एक कदम आगे बढ़ाना चाहा। अतः उसने दावा किया कि हम स्त्री और पुरूष दोनों को एक पायदान पर खड़ा करेंगे। स्त्री को भी समाज का यह नारा बहुत लुभावना मालूम हुआ और उसे भी इस में अपनी स्वतन्त्रता नजर आयी। अतः वह भी आँखे बन्द करके इस नारे के पीछे दौड़ने लगी। वह गरीब यह न समझ सकी कि जिसे प्रकृति ने समान नहीं बनाया है, उसे समान पायदान पर लाना इंसान के बस की बात नहीं। यही कारण है कि समानता के नाम पर पुरूष महिला को बाजारों व कार्यालय में तो खींच लाया और अपने हिस्से का काम उसने महिला के कन्धों पर डालकर उसके कन्धों को बोझल तो कर डाला, लेकिन पुरूष ने उसके काम में हाथ नहीं बटाया। नतीजा यह हुआ कि जो महिला आफिसों में काम कर के रोजी कमाती है, घर में खाना भी उसे ही बनाना और परोसना होता है।

इस्लाम ने न तो महिलाओं को काम, कारोबार से रोका है और न नौकरी और व्यापार से, लेकिन आवश्यकता के अनुसार, क्योंकि इस्लाम माँ और बेटियों को इज्जत देता है, वह उन्हें बाजार की जीनत बनने से रोकता है।

आज के समाज ने महिला की जीनत को बाजार में रखकर बेच दिया है। समानता के नाम पर उसके शरीर को नंगा करके उसकी असमत को तार-तार कर दिया है। यह कैसी समानता है? कि टी0वी0 स्क्रीन पर अख्बारात में, फिल्मों के पर्दे पर, पुरूष का पूरा शरीर वस्त्रों में ढ़का नजर आता है, और स्त्री अर्धनग्न देखी जा सकती है। आखिर हसीन दोशीजा़एं अपनी लहलहाती जुल्फों को सीने के दिलकश उभार पर सजा कर शरीर के नाजुक अंगो की नुमाइश करने वाले चुस्त और अल्प वस्त्र धारण करके महिला स्वतंत्रता के नाम पर किसे अपना योबन दिखाने बाजारों में बेजरूरत घूमने निकलती है? फिर जब नौजवान लड़के अपने जज्बात पर काबू न पाकर किसी अनहोनी को अन्जाम देते हैं तो वही कसूरवार ठहरते हैं उन्हें जेल जाना पड़ता है, और सजाएं भुगतनी होती हैं। इस्लाम केवल यह चाहता है कि किसी बहन की असमत न लुटे, किसी बेटी पर किसी की बुरी नज़र न पड़े, उसी के उपाय के तौर पर वह महिलाओं को पाबन्द करते हुए ताकीद करता है कि-

मुसलमान महिलाओं से कह दीजिए कि अपनी निगाहें

नीची रखें और अपनी असमत में फर्क न आने दें,

और अपनी श्रृंगार को ज़ाहिर न करें

(कु़रआन सूरह नूर आयत नः 30)

कु़रआन का यह हुक्म माँ और बेटियों की इज्जत व आबरू की सुरक्षा और उन्हें बुरी निगाहों से बचाए रखने के लिए है। यही वजह है की जब स्त्रि ऐसी आयुवस्था को पहुँच जाए की उस पर आवाराग

र्दों की निगाहें उठने का भय न रहे तो उन्हें छूट देते हुए कु़रआन कहता है-

जो स्त्रियां युवावस्था गुजर चुकी हों उन पर कोई

दोष नहीं की वे अपने (पर्दे) के कपड़े उता दें

बशर्ते की वे श्रृंगार का प्रदर्शन करने

वाली न हों। (सूरह नूर 60)

कु़रआन के यह उपदेश बता रहे हैं कि इस्लाम का मकसद माँ और बेटी की सुरक्षा है, उन पर पर्दे का बोझ डालना नहीं

गृहमंत्री के पद पर रहते हुए श्री एल

. के. डवाणी ने बलात्कार के मुजरिम को मौत की सजा देने की वकालत की थी (ख्याल रहे कि इस्लाम धर्म में बलात्कारी की यही सजा है) परन्तु इस्लाम वह तदबीर भी बताता है, जिससे ऐसी घटनाएं न हों और वह है महिला का अपने शरीर के नाजुक अंगों को छुपाना, इसके बिना अपराध पर काबू पाने का प्रयास ऐसा ही है जैसे किसी व्यक्ति का पैर गंदी नाली में गिर जाय और वह पैर को नाली में डाले डाले ही धोनां चाहे और वहीं उस पर पानी डालता रहे, जाहिर है जब तक वह पांव को बाहर निकाल कर नहीं धोएगा तब तक उसके पैर की गन्दगी दूर नहीं होगी।

यही हाल आज के समाज का है, लड़कियों को तो छूट है वे अपने शरीर को नंगा करके हुस्न-ए-बेपर्दा को हथेली पर रखकर घूमें और लड़को की निगाहों पर पहरे हैं। आखिर यह कैसे संभव है, अतः नतीजा जाहिर है कि स्त्री की असमत तार-तार है वह महज बाजार की जीनत बन कर रह गई है, समानता के नाम पर महज उसके शरीर की नुमाईश हुई है।

पुरूष स्वतन्त्रता के बहाने उसे कार्यालय में खींच लाया, और यहां उसे अपने पहलू में बिठाकर उसने महज अपने जज्बात को शान्त और उसकी असमत का शोषण किया है। इसका ज्यादा भयानक चेहरा पश्चिमी देशों में दिखाई पड़ता है, जहां पचास प्रतिशत आबादी को यह गिनती याद नहीं कि उन्होने कितनी स्त्री व पुरूषों के साथ जिन्सी ताअल्लुक कायम किया है। जहां पर हर तीसरी औलाद नाजायज पैदा होती है। जिनके मजहब में तलाक का तसव्वुर नहीं, फिर भी हर तीसरे जोडे़ में तलाक हो जाती है।

इस लम्बी तफसील का निष्कर्ष यह है कि ये सारी खराबियां इसलिए पैदा हुई कि समाज ने इस्लाम से एक कदम आगे रखना चाहा लिहाजा मुँह की खाई। कहावत है कि आसमान का थूका मुँह पर आता है।

आज भारतीय पार्लियामैन्ट में समानता की बुनियाद पर महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण देने की बात हो रही है, क्या इस से समानता लाई जा सकती है? नहीं बिल्कुल नहीं, स्त्री और पुरूष उस समय तक समान नहीं होंगे जब तक पुरूष स्त्री की तरह बच्चा न जन्ने लगें उसके जुल्फों की स्याही और गालों की सुर्खी आकर्षण का केन्द्र न बन जाय, उसकी आँखों की तिरछी निगाहें दिलों को जख्मीं न करने लगे। उसके अल्लढ़ होंट गुलाब की प

त्तियों में परिवर्तित न हो जायं, उसकी चाल में नजाकत, अन्दाज में शराफत और आवाज में हलावत पैदा न हो जाय, उसकी अंगड़ाई दिल पर बिजली बन कर न गिरने लगे और उसकी छातियों में उभार पैदा होकर उनमें दूध न उतर आए।

तात्पर्य यह है कि जिसे प्रकृति ने समान नहीं किया उसे यह इन्सान कैसे समान कर सकता है?

तथाकथित महिला स्वतन्त्रता की यह आवाज सब से पहले पश्चिमी देशों में उठी थी, परन्तु पश्चिमी देशों का अगुआ अमेरिका अपने देश को आज तक(2010)कोई महिला राष्ट्रपति न दे सका, एक विदेश मंत्रालय को छोड़कर जिस पर किसी खास उद्देश्य से वे अपने यहां की किसी महिला को बिठाते हैं, बाकी तमाम महत्वपूर्ण पद पर आज भी वहां पुरूष ही नजर आता है। आप अपने ही देश में देखें कितने ही विभागों में पचास प्रतिशत तक महिलाएं हैं परन्तु रोड वेज बसों में आज तक एक महिला भी बस

ड्राईवर के पद पर नहीं देखी गई, आटो रक्शा और टेम्‍पो टेक्सी चलाते हमने किसी महिला को नहीं देखा।